Friday, December 4, 2020

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Monday, June 29, 2020

नववर्ष चेतना समिति हेतु
महाराज विक्रमादित्य भारतीय संस्कृति के ऐसे प्रतिनिधि राजा हुए जिन्होने अपने कृतित्व से समाज में चेतना जागृत की।  कश्मीर के नरेश अनन्त (1029-1064) की सभा के सभासद क्षेमेन्द्र ने बृहत्कथा मंजरी में इस राजा का वर्णन किया है।  महाकवि सोमदेव की रचना कथासरित्सागर का एक समूह है, जिसे वेतालपंचविंशति नामक ग्रन्थ के रूप में भी जाना जाता है।  कथासरित्सागर से स्पष्ट होता है कि यह विक्रमादित्य उज्जैन से शासन करता था और पाटलिपुत्र नरेश विक्रमादित्य से भिन्न था।
प्राचीन इतिहास में राजा-महाराजा साम्राज्य विस्तार हेतु प्रायः परस्पर युद्ध करते थे, किन्तु वे युद्ध के नियमों का पालन करते हुए उसी प्रकार युद्ध करते थे, जैसे आधुनिक काल में दंगल, कबड्डी एवं कुश्ती आदि खेल कुछ नियमों के अधीन ही खेले जाते हैं।  प्रतिद्धन्दी की संस्कृति, शील तथा सम्पत्ति का क्षरण/विध्वंस उनकी नीतियों में कभी शामिल नहीं रहा।  ऐसे में जीत के लिये निकृष्टतम पद्धति को अपनाने को प्रवृत्त, बर्बर आक्रान्ता शकों से भारत की रक्षा करना विक्रमादित्य की एक महान उपलब्धि थी।  उसके उदात्त गुणों के कारण लोक ने उसे सराहा और उसके आदर बुद्धि चातुर्य , न्यायप्रीयता तथा पराक्रम का अनुसरण ही अपना आदर्श माना।  150ई0 में शासन करने वाला विदेशी राजा कार्दमक शक  नरेश रूद्रदामन भी भारतीय नरेशों की इन नीति से परिचित एवं प्रभावित था।  इसीलिये उसने यह घोषणा की थी कि ‘ मैने युद्ध के अतिरिक्त मानव वध न करने की प्रतिज्ञा ली है।  जूनागढ़ अभिलेख में ही अन्यत्र कहा गया है कि उसकी मन्त्रिपरिषद में जब सुदर्शन झील की मरम्मत कार्य पर व्यय करने से मना किया तो रूद्रदामन ने उनके परामर्श का आदर करते हुए राजकोष से पैसा नहीं लिया और प्रजा के लाभ हेतु अपने निजी कोष से धन व्यय करके मरम्मत कराई।  मंत्री परिषद से की गई गुप्त वार्ता को प्रजा के समक्ष बता कर मंत्री परिषद की प्रतिष्ठा पर जोर पहुॅचाना और साथ ही भारतीय समाज की पूर्व प्रचलित परम्परा को मान्यता देने का दिखावा करके एक विदेशी राजा द्वारा प्रजा को विभ्रम में डालना का कूटनीतिक प्रयास उसके व्यक्तित्व का दोगलापन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अपनी इसी नीतिगत छद्म के कारण वह भारत में नीति परक मातृ सत्ता के आदर देने वाले, वर्णसंकरता रोकने का प्रयास करने वाले सातवाहन नरेशों पर दबिश बनाकर कुछ अवधि तक शासन कर पाया था।
विक्रमादित्य ने 57ई0 पूर्व में विक्रम संवत् की स्थापना की।  यह विक्रम संवत् संसार की सभी प्रचलित ऐतिहासिक संवतों से सर्वाधिक दीर्घ  जीवनीशक्ति वाला सिद्ध हुआ है अपनी प्रमाणिकता के कारण हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों, गणित ज्योतिष एवं फलित ज्योतिष में विक्रम संवत् का प्रयोग जारी रहा।  हिन्दुओं की कुण्डलियों और पंचाग का संवत् विक्रमादित्य से सम्बन्धित रहता है।  आज महाराष्ट्र, गुजरात, समस्त उत्तर भारत सहित समस्त भारत विक्रमादित्य की लोककथाओं से पूरित है।  उसका परदुखभंजन-रूप, न्यायपरायणता, उदारता और शौर्य प्रत्येक भारतीय का ह्दय हारा बना हुआ है।  इतिहास में अनेक राजाओं ने इस राजा के नाम विक्रमादित्य को उपाधि रूप में गर्व पूर्वक धारण किया ।  इस उपधि के धारक राजाओं ने विदेशियों ने विजय प्राप्त की और अपने नायक के गुणों के अनुरूप साहित्य-कला को आशय दिया, अपार दान दिया और राज्यसभा के वैभव को बढ़ाया।  उसके नाम की उपाधि ग्रहण करने में गैारव महसूस करना इस बात का सूचक है कि भारतीय जन सदैव ही विक्रमादित्य के नाम को अत्यन्त मान और आदर की दृष्टि से देखते थे।
विक्रमादित्य का चलाया हुआ यह विक्रम संवत् हमारी अमूल्यतम एवं महानतम् थाती है।  यह हमारे विक्रम की स्मृति है, इसी से हम भावी विक्रम की शक्ति संचित करेंगे।  महाकवि कालिदास ने रघुवशं के राजाओं तथा पुरूरवा (विक्रमोर्वशीयम्) के माध्यम से भारतीय नवयुवकों का जो आदर्श चरित प्रदर्शित किया है वह भारतीय पुरूष व्यक्तित्व का मानक है। 
मानव प्रकृति से सम्बद्ध रहे, इस निस्पृह भावना से भारतीय मनीषियों में कई उदाहरण दिये हैं जैसे महिनों के नाम प्राकृतिक तत्व-नक्षत्रों से जोड़ा है जैसे-चित्रा नक्षत्र वाली पूर्णिमा के मास का नाम चैत्र है। विशाखा का वैशाख है।  ज्येष्ठा का ज्येष्ठ है।  आषाढ़ा नक्षत्र का आषाढ़ है।  श्रवण नक्षत्र का मास, श्रावण है, उत्तराभाद्र पद का भाद्रपद है।  अश्विनी का अश्विन् है।  कृतिका का कार्तिक, मृगशिरा का मार्गशीर्ष, पुष्य का पौष । मघा का माघ और उत्तर फाल्गुनी का फाल्गुन मास होता है।  पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में 365 दिन 6 घंटा 9 मिनट और 11 सेकेन्ड लगते हैं।  भारतीय वैज्ञानिकों ने 32 मास 16 दिन के पश्चात् एक अधिक मास या पुरूषोत्तम मास की व्यवस्था की है।  जब दो पक्षों में संस्क्रान्ति नहीं होती है, तब अधिक मास होता है।  अधिक मास में आने वाले शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की एकादशी पद्मिनी एकादशी और परमा एकादशी कहलाती है।  इस प्रकार कालगणना की प्राकृतिक शुद्धता और वैज्ञानिकता बनाये रखी गयी है।  इस काल गणना का प्रथम दिवस चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा है।  कालगणना में ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि रचना का यह प्रथम दिन है।   वास्तव में यह केवल हम भारतवासियों के लिये ही नहीं वरन् समस्त सृष्टि के लिये महत्वपूर्ण है।